विश्व कप क्रिकेट मुकाबले के दौरान मुंबई में 20 से अधिक,
आसपास के इलाकों में दो दर्जन से अधिक और देश भर
में 100 से अधिक बुकियों की गिरफ्तारी के बाद जिस तरह रिहाई हुई थी,
जिस तरह पुलिस अधिकारियों की उनसे मिलीभगत की बातें
सामने आई थीं, जितनी आसानी
से वे सभी जमानत हासिल करके फिर क्रिकेट के काले काम में लग गए थे,
उससे एक बात साफ हो गई थी कि सट्टा बुकियों को सजा
दिलाना पुलिस एवं जांच एजंसियों के लिए बेहद मुश्किल काम है। कानूनों में जैसे छेद
हैं, उनके कारण बुकियों के खिलाफ
मामला अदालत में कभी भी साबित नहीं हो पाता है। यही स्थिति स्पॉट फिक्सिंग मामले
में भी होनी तय है, यदि दिल्ली पुलिस ने तमाम सबूत सही तरह से पेश न किए, यदि
पुलिस टेलीफोन रिकॉर्डिंग के साथ ही अन्य ऐसे सबूत पेश न कर सकी जो खिलाड़ियों के
भी इस मामले में शामिल लिप्त होने की जानकारी दें। यही नहीं बुकियों के खिलाफ मोका
लगाने की बात सामने आ रही है परंतु खिलाड़ियों पर नहीं, इससे बुकियों के लिए खुले
तौर पर कानूनी बचाव का अच्छा मौका होगा।
पुलिस अधिकारी बताते हैं कि आमतौर पर बुकियों का सारा कामकाज टेलीफोन के जरिए होता
है। उनसे बरामद होने वाले दस्तावेजों में तमाम जानकारियां कूट संकेतों में दर्ज होती
हैं। इनके बारे में अदालत में साबित करना बड़ा मुश्किल होता है कि ये तमाम दस्तावेज
किसी खास जुए से संबंधित हैं।
पुलिस अधिकारी बताते हैं कि स्टेट गैंबलिंग एक्ट की धारा 12
(4) या 12 (4) ए के तहत
अवैध रूप से जुआ खेलना या खिलाना जमानती अपराध है। ऐसे मामलों में पुलिस थाने में ही
तुरंत 500 से 1250 रुपए की जमानत हो जाती है। पुलिस अधिकारी जुआरियों या सट्टाखोरों-बुकियों
को जमानत देने से इंकार नहीं कर सकते हैं।
यदि पुलिस बुकियों या सटोरियों के खिलाफ कोई कड़ा कदम उठाने की कोशिश भी करे तो
सटोरिए और बुकि तुरंत अदालत की शरण लेते हैं। जब पुलिस को अदालत से आदेश मिलता है तो
बुकि बतौर जमानत तुरंत नकद रकम जमा कर देते हैं। यह रकम 2 हजार रुपए से अधिक नहीं होती है। इसके बाद बुकि अगर अदालत में
पेशियों पर नहीं आते हैं तो उनकी जमानत का पैसा जब्त हो जाता है। इतनी छोटी रकम से
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है।
पुलिस अधिकारी बताते हैं कि टेलीफोन लाइन के दुरुपयोग के कारण बुकियों पर इंडियन
पोस्ट एंड टेलीग्राफिक एक्ट भी लगाते हैं लेकिन उसका भी अधिक फायदा नहीं होता है क्योंकि
इस कानून के तहत अपराध साबित करना काफी मुश्किल होता है। एक से अधिक टेलीफोन लाईनें
रखना अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। इनका दुरूपयोग सट्टेबाजी के लिए हुआ था,
इसके सबूत जुटाना असंभव होता है।
मुंबई पुलिस के इतिहास में आज तक कभी भी किसी बुकि या सट्टेबाज को किसी कानून के
तहत सजा नहीं हो सकी है। रतन खत्री और कल्याणजी भगत इतने बरसों से मटका नामक सट्टाखोरी
करते रहे हैं। वे भी न जाने कितनी बार गिरफ्तार हो चुके हैं लेकिन आज तक उन्हें भी
सजा नहीं हो पाई है। वे हमेशा जमानत पर रिहा होकर गायब हो जाते थे।
एक वरिष्ठ अधिकारी, जिसने खुद रतन खत्री को गिरफ्तार किया था, कहता है, 'जब तक कानूनों में परिवर्तन नहीं होगा,
तब तक इस मर्ज का इलाज संभव नहीं है। कानून ऐसे होने
चाहिएं, जिसके तहत
जमानत हासिल करने में बुकियों को काफी समस्या हो। इतना ही नहीं,
उन्हें सजा दिलाना भी आसान हो।'
सट्टेबाजों के संगठित अपराधी गिरोहों से संबंध होने और उन्हें पैसे मुहैय्या
करवाने संबंधी जानकारी सामने आने पर भी पुलिस अधिकारी भले ही मोका जैसे कड़े कानूनों
के तहत कार्रवाई करने का इरादा दिखाएं, आज तक किसी सटोरिए या बुकि के खिलाफ इस कड़े कानून के तहत मामला
दर्ज नहीं हुआ है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मानते हैं,
'यह बड़ा मुश्किल है कि बुकियों के संबंध माफिया से
स्थापित किए जा सकें। हमारी कोशिश जारी है। हमें पता है कि बुकि पैसों की वसूली के
लिए माफिया से संबंध रखता है, उन्हें नियमित रूप से संरक्षण राशि चुकाता है, मैच फिक्सिंग के लिए भी खिलाड़ियों औऱ बुकियों को डराते-धमकाते
हैं, मैच फिक्सिंग की रकम का इंतजाम करते या करवाते हैं, इसमें हवाला कारोबारी भी
सामिल होते हैं, इलेक्ट्रॉनिक सर्विलिएंस के जरिए हम उन्हें दबोचने की कोशिश कर रहे
हैं। जैसे ही एक भी बुकि मोका के जाल में फंसेगा, सारे के सारे धंधा बंद कर हवा हो लेंगे।'
'सेक्शन' बिना धंधा नहीं
'सेक्शन' शब्द का चलन मुंबई के सट्टा बाजार में बड़ा ही आम है। इसका अर्थ सटोरियों के बीच
होता है पुलिस को दिया जाने वाला 'हफ्ता'। हर क्षेत्र का बुकि अपने इलाके की पुलिस को हफ्ता चुकाता है ताकि वे उसे काम
के दौरान तंग न करें और कारोबार आसानी से चलने दें। सेक्शन की रकम बुकि के कारोबार
और इलाके के आधार पर तय होती है। इस मामले में जब एक पुराने घिसे हुए बुकि से पूछा
तो उसने बड़ी तल्खी से कहा, 'हमारा काम है कमाना, उनका (पुलिस वालों का) काम है हमें लूटना। वो लोग तक सेक्शन अगर टाईम पर नहीं
पहुंचा तो कयामत ही आ जाती है।' उससे जब रेट पूछे तो चंद सेकंडों में सारा खाका खींच दिया।
एक बुकि द्वारा दिया जाने वाला माहवार हफ्ता
पुलिस चौकी प्रभारी - 1 लाख
थाना प्रभारी - 10 हजार
डिटेक्शन प्रभारी (थाने का) - 15 हजार
समाज शाखा प्रभारी - 10 महीना
अपराध शाखा प्रभारी (इलाके का) - 10 से 15 हजार
पुलिस कैसे बचाती
है बुकियों को
कमजोर सबूत पेश करके
कम रकम की जब्ती दिखा कर
बड़े बुकियों को मौके से
गिरफ्तार न दिखा कर
लैपटॉप या कंप्यूटर की फोरेंसिक
न करवा कर
आईटी एक्ट की कठोर धाराएं न लगा
कर
हवाला कारोबारियों को गिरफ्तार न
कर
पांच से अधिक लैंडलाईन या सेल
फोन इस्तेमाल करने पर भी टेलीग्राफिक एक्ट की कठोर धाराएं न लगा कर
विवेक अग्रवाल
21.05.2013
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