देश के नागरिकों को तमाम अधिकार मिले हुए हैं और इंसाफ पाने के लिए इन अधिकारों के तहत तमाम फोरम ( पुलिस से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ) में अपील की जा सकती है। लेकिन पुलिस अगर किसी शिकायत पर कार्रवाई न करे तो लोग कहां जाएं ? क्या हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सीधे गुहार लगाई जा सकती है ? इंसाफ से जुड़े दूसरे कानूनी प्रावधान क्या हैं ? इन सब सवालों के जवाब दे रहे हैं राजेश चौधरी :
पुलिस से शिकायत
पुलिस से किसी भी अपराध की शिकायत की जा सकती है। अपराध दो तरह के होते हैं संज्ञेय ( कॉग्निजेबल ) और असंज्ञेय ( नॉन कॉग्निजेबल ) अपराध।
एनसी कब
असंज्ञेय अपराधों की कैटिगरी में मामूली अपराध आते हैं जैसे कि मारपीट , छीनाछपटी आदि। ऐसे मामले में सीधे तौर पर पुलिस के सामने शिकायत नहीं की जाती। ऐसे मामले में पुलिस एनसीआर ( नॉन कॉग्निजेबल रिपोर्ट ) दर्ज करती है और मामला मैजिस्ट्रेट को रेफर कर दिया जाता है। असंज्ञेय अपराध में पुलिस सीधे एफआईआर दर्ज नहीं करती जबकि संज्ञेय अपराध में पुलिस को सीधे एफआईआर दर्ज करना होता है।
एफआईआर कब
संज्ञेय अपराधों में गंभीर किस्म के अपराध आते हैं जैसे कि हत्या , रेप , डकैती , लूट आदि। सीआरपीसी की धारा -154 के तहत संज्ञेय अपराध में पुलिस एफआईआर दर्ज करना जरूरी है। लेकिन पुलिस अगर केस दर्ज करने में आनाकानी करे तो शिकायती सीधे जिले के आला अधिकारी यानी डीसीपी और एसपी से शिकायत कर सकता है और कई बार आला अधिकारी के दखल से केस दर्ज कर लिया जाता है।
अदालत की दखल से एफआईआर
अगर इसके बाद भी केस दर्ज न हो तो पीड़ित पक्ष इलाके के अडिशनल चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट या चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट के सामने सीआरपीसी की धारा -156 (3) के तहत शिकायत कर सकता है। हर जिला अदालत में एक अडिशनल चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट बैठता है। दिल्ली से बाहर के मामले में चीफ जूडिशियल मैजिस्ट्रेट ( सीजेएम ) के सामने शिकायत की जा सकती है। इसके बाद अदालत मामले को संबंधित मैजिस्ट्रेट को रेफर करती है। इसके बाद मैजिस्ट्रेट के सामने शिकायती अपना पक्ष रखता है और उससे संतुष्ट होने के बाद मैजिस्ट्रेट एफआईआर दर्ज करने का आदेश देता है। अगर मैजिस्ट्रेट ने अर्जी खारिज कर दी तो उस अदालती फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अर्जी दाखिल की जा सकती है।
फैमिली कोर्ट
2 साल पहले राजधानी दिल्ली की जिला अदालतों में फैमिली कोर्ट की शुरुआत की गई है। फैमिली कोर्ट में वैवाहिक विवादों से संबंधित मामला चलता है। इस कोर्ट का माहौल सौहार्दपूर्ण होता है। यहां कोशिश यह होती है कि दोनों पक्ष आपसी सहमति से मामले में समझौता कर लें और केस का निपटारा हो जाए। इसके लिए कोर्ट में काउंसलर और सायकायट्रिस्ट होते हैं जो दोनों पक्षों को सुनते हैं और फिर आपसी बातचीत के जरिए मामले को किसी नतीजे पर लाने की कोशिश करते हैं। कोर्ट रूम के बगल में बच्चों के खेलने के लिए कमरे बनाए गए हैं जहां बच्चे खिलौने से खेलते हैं। साथ ही टीवी कार्टून आदि देखते हैं।
वकील के पैसे न हों तो
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मीडिएशन सेंटर
हाई कोर्ट के सरकारी वकील नवीन शर्मा ने बताया कि जब मामला अदालत में पेंडिंग होता है तो दोनों पक्ष में से कोई भी पक्ष चाहे तो अदालत से मामले को समझौते के लिए मेडिएशन सेंटर भेजने का आग्रह कर सकता है। अदालत दोनों पक्षों की रजामंदी से मामले को मीडिएशन सेंटर भेजता है ताकि मामले का बातचीत के जरिये निपटारा किया जा सके। अगर मामला गैर समझौतवादी हो तो हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल कर केस मीडिएशन में रेफर करने की गुहार लगाई जा सकती है। कई बार वैवाहिक मामले या अन्य मामलों में अगर अदालत को लगता है कि केस में दोनों पक्षों में बातचीत से निपटारे की गुंजाइश है तो मामले को खुद ही मीडिएशन में भेजते हैं। यहां जब समझौता हो जाता है तो सेंटर की रिपोर्ट संबंधित अदालत में पेश की जाती है और फिर अदालत में उस मामले में अंतिम फैसला होता है।
ईवनिंग कोर्ट
ईवनिंग कोर्ट यानी ऐसी अदालत , जो शाम 5 बजे से 7 बजे तक लगती है। मैजिस्ट्रेट कोर्ट में मुकदमों की संख्या को कम करने के लिए नवंबर 2008 में ईवनिंग कोर्ट की शुरुआत हुई। ईवनिंग कोर्ट शुरू होने का लोगों को काफी फायदा हुआ है। सामान्य कोर्ट में सुनवाई के दौरान कोर्ट में मौजूद रहने के लिए छुट्टी करनी पड़ी है। छुट्टी न मिलने से कई बार वादी या प्रतिवादी कोर्ट में पेश नहीं हो पाते। इससे कोर्ट का वक्त बर्बाद होता है और मामला लंबा खिंचता चला जाता था। ईवनिंग कोर्ट में ऐसी कोई समस्या नहीं है। ड्यूटी खत्म होने के बाद भी लोग संबंधित कोर्ट में पेश हो सकते हैं। साथ ही , जिन मामलों की सुनवाई होती है , ईवनिंग कोर्ट में उनकी लिस्ट पहले ही तैयार कर ली जाती है। इससे जिन लोगों के केसों की अगले दिन सुनवाई होनी होती है , उन्हें यह अंदाजा हो जाता है कि उस दिन उन्हें किस वक्त कोर्ट में मौजूद रहना है। इससे उनका समय भी बर्बाद नहीं होता। ईवनिंग कोर्ट में केस की सुनवाई के लिए यह जरूरी नहीं कि दोनों पक्ष अपने - अपने वकीलों के साथ ही कोर्ट में पेश हों। अगर दोनों पक्ष मामले को निपटाना चाहते हैं तो वे व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश हो सकते हैं। शुरुआत में ईवनिंग कोर्ट में चेक बाउंस के मामलों की सुनवाई होती थी , लेकिन अब इनका दायरा काफी बढ़ गया है। इस समय ईवनिंग कोर्ट में वेट एवं मेजरमेंट , चाइल्ड लेबर , न्यूनतम वेतन , लोकल पुलिस द्वारा काटे गए ट्रैफिक चालान , दिल्ली पुलिस ऐक्ट के तहत बनाए गए कलंदरे , नोटिस ब्रान्च और शॉप ऐक्ट आदि के मुकदमों की सुनवाई भी होती है।
कंस्यूमर कोर्ट
कानूनी जानकार अजय दिग्पाल बताते हैं कि कंस्यूमर के अधिकार से जुड़ा मामला कंस्यूमर कोर्ट में जाता है। ऐसे मामले में पीड़ित खुद भी अपने इलाके के कंस्यूमर कोर्ट ( हर जिले में कंस्यूमर कोर्ट है ) में जाकर लिखित शिकायत दे सकता है और प्रतिवादियों के नाम समन जारी करने की गुहार लगा सकता है या फिर वकील के जरिए शिकायत दे सकता है। चूंकि आम आदमी को कंस्यूमर कोर्ट में बड़ी कंपनी या बड़े संस्थान के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़नी होती है , ऐसे में उन्हें वकील की सलाह लेनी चाहिए क्योंकि दूसरी तरफ से वकीलों की टोली होती है।
फास्ट ट्रैक कोर्ट
राजधानी दिल्ली में हाई कोर्ट के आदेश से फास्ट ट्रैक कोर्ट की शुरुआत की गई है। 7 साल से ज्यादा पुराने मामलों के निपटारे के लिए हाई कोर्ट ने निचली अदालतों में फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन किया है और यहां पुराने मामलों की जल्दी सुनवाई के बाद निपटारा किया जाता है।
ई - कोर्ट
ई - कोर्ट की शुरुआत हाई कोर्ट से हुई है। ई - कोर्ट यानी पेपरलेस कोर्ट। इसके पीछे कॉन्सेप्ट यह है कि अदालत में तमाम दस्तावेज डिजिटल होंगे और वहां कोई पेपर नहीं दिखेगा , बल्कि तमाम दस्तावेज लैपटॉप और कंप्यूटर में होंगे। ई - कोर्ट में फाइल होने वाले दस्तावेज डिजिटल फॉर्म में होते हैं और वकील लैपटॉप में अपने दस्तावेज स्टोर कर उसके आधार पर जिरह करते हैं। राजधानी दिल्ली में अभी इसकी शुरुआत भर की गई है। दस्तावेजों को डिजिटल फॉर्म में लाने का काम तेजी से चल रहा है।
लोक अदालत
दिल्ली लीगल सर्विस अथॉरिटी लोक अदालतों का आयोजन करती है। दिल्ली की तमाम जिला अदालत कॉम्प्लेक्स में लोक अदालतें लगाई जाती हैं। समय - समय पर लोक अदालतें लगाई जाती है और इसकी तारीख लीगल सर्विस अथॉरिटी तय करता है। लोक अदालत में तमाम तरह के सिविल और समझौतावादी क्रिमिनल मामलों का निपटारा किया जाता है। क्रिमिनल केस दो तरह के होते हैं : समझौतावादी और गैर - समझौतावादी। गैर - समझौतावादी मामलों को लोक अदालत में रेफर नहीं किया जाता लेकिन समझौतावादी मामलों को लोक अदालत में भेजा जा सकता है , खासकर बिजली चोरी , मारपीट , मोटर वीइकल दुर्घटना दावा ट्रिब्यूनल , चेक बाउंस , ट्रैफिक चालान , लेबर लॉ आदि से संबंधित केस आदि को लोक अदालत में रेफर किया जा सकता है लेकिन इसके लिए जरूरी है कि दोनों पक्ष मामले को निपटाने के लिए तैयार हों। सिविल नेचर के तमाम केस रेफर हो सकते हैं , जबकि क्रिमिनल के समझौतावादी। गैर समझौतावादी केस जैसे बलात्कार , हत्या , लूट , देशद्रोह , डकैती , हत्या की कोशिश आदि का केस रेफर नहीं होता।
दोनों पक्षों की रजामंदी जरूरी
जब एक पक्ष केस को लोक अदालत में रेफर करने के लिए अदालत से आग्रह करता है तो अदालत दूसरे पक्ष से उसकी इच्छा जानने की कोशिश करती है। जब दोनों पक्षों में समझौते की गुंजाइश दिखती है तो मामले को लोक अदालत में रेफर कर दिया जाता है। लोक अदालत में पेश होकर दोनों पक्ष अपनी बात कोर्ट के सामने रखते हैं। अदालत दोनों पक्षों को सुनती है और मामले का निपटारा करती है। चूंकि दोनों पक्ष मामले को खत्म करने का मन बनाकर जाते हैं , इसलिए अक्सर एक ही सुनवाई में मामले का निपटारा हो जाता है। लोक अदालत में निपटे केस को चुनौती नहीं दी जा सकती। लोक अदालत में वकीलों की जरूरत नहीं होती।
जनहित याचिका
अगर किसी के मूल अधिकार का उल्लंघन हो रहा हो तो वह सीधे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है लेकिन अगर आम लोगों के हितों से जुड़ी बात हो तो मामला याचिका जनहित याचिका में तब्दील हो जाता है। 80 के दशक के शुरू में जनहित याचिका यानी पीआईएल ( प्राइवेट / पब्लिक इंट्रेस्ट लिटिगेशन ) का प्रावधान हुआ। 1982 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस पी . एन . भगवती की अगुवाई में 7 जजों की बेंच ने बहुचर्चित जज ट्रांसफर केस में ऐतिहासिक फैसला दिया। अपने जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आम लोगों के अधिकारों को नकारा नहीं जा सकता। ऑस्ट्रेलियन लॉ कमिशन की एक सिफारिश का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर आम आदमी के अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो तो कोई भी शख्स जनहित याचिका दायर कर सकता है। इससे पहले इस बात की व्यवस्था थी कि जो पीड़ित पक्ष है , वही इस बारे में अर्जी दाखिल कर सकता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में यह व्यवस्था दी गई कि अगर मामला आम लोगों के हित से जुड़ा हो तो कोई भी उसके लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।
लेटर से भी हो सकती है याचिका दायर
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अगर कोई शख्स हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को लेटर लिखकर भी समस्या के बारे में सूचित करता है तो अदालत उस लेटर को जनहित याचिका में बदल सकती है। लेटर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को संबोधित कर लिखा जा सकता है ये लेटर कोई भी नागरिक लिख सकता है। अगर मामला जनहित से जुड़ा हो तो कोर्ट इसमें संज्ञान ले सकता है।
जनहित याचिकाएं दो तरह की होती हैं :
1. प्राइवेट इंट्रेस्ट लिटिगेशन :
अगर किसी का अधिकार प्रभावित हुआ है , तो वह खुद प्राइवेट इंट्रेस्ट लिटिगेशन के तहत याचिका दायर कर सकता है। इसके लिए उसे संविधान के अनुच्छेद -32 के तहत सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद -226 के तहत हाई कोर्ट में याचिका दायर करने का अधिकार है। याचिकाकर्ता को अदालत को बताना होता है कि उसके मूल अधिकार का उल्लंघन कैसे हुआ है ?
2. पब्लिक इंट्रेस्ट लिटिगेशन :
जनहित याचिका दायर करने के लिए याचिकाकर्ता को बताना होगा कि आम लोगों के अधिकार का उल्लंघन कैसे हुआ है ? अपने खुद के इंट्रेस्ट के लिए जनहित याचिका का इस्तेमाल नहीं हो सकता।
जनहित याचिका का उदाहरण
ऐडवोकेट अशोक अग्रवाल ने बताया कि 29 अगस्त 2011 को 7वीं क्लास में पढ़ने वाला लड़का सीमापुरी स्थित स्कूल गया था। स्टूडेंट नीचे बैठकर पढ़ाई कर रहा था , तभी बाहर से कोई पत्थर उड़कर आया और स्टूडेंट की आंख में लग गया। रात 12 बजे एम्स में इलाज के दौरान लड़के के पैरंट्स को बताया गया कि बच्चे की लेफ्ट आंख की रोशनी चली गई और इसका ऑपरेशन कर नकली आंख लगानी होगी। इसके बाद एक एनजीओ ने हाई कोर्ट को लेटर लिखकर इस मामले को उठाया। हाई कोर्ट ने इसे याचिका में तब्दील करते हुए सरकार से जवाब देने को कहा। याचिका पर सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार से कहा कि वह हर स्कूल में स्टूडेंट को मेडिकल सुविधा देने के लिए एक-एक डॉक्टर का इंतजाम करे। साथ ही एक पैरा मेडिकल स्टाफ की भी ड्यूटी लगाई जाए।
प्ली बार्गेनिंग
हाई कोर्ट के निर्देश पर शुरू की गई ' प्ली बार्गेनिग ' एक स्वैच्छिक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा आपराधिक मुकदमों का निपटारा किया जाता है। प्ली बार्गेनिंग के तहत वैसे मामलों की सुनवाई होती है , जिनमें अधिकतम सजा 7 साल कैद से कम हो। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि प्ली बार्गेनिंग में एक से दो तारीख में ही दोनों पक्षों के बीच हुए समझौते के बाद केस का निपटारा कर दिया जाता है। अगर दो महीने में समझौता नहीं होता तो केस वापस संबंधित अदालत में भेज दिया जाता है।
दोनों पक्षों की सहमति जरूरी
प्ली बार्गेनिंग के तहत दोनों पक्षों में स्वैच्छिक समझौता होना जरूरी है। इसके तहत आरोपी और पीड़ित पक्ष के बीच मामले को निपटाने के लिए सहमत होना जरूरी है। इस प्रक्रिया के तहत आरोपी अपने अपराध को मर्जी से स्वीकार करता है। दोनों पक्षों के बीच होने वाला समझौता अदालत की देखरेख में होता है। समझौते के बाद मैजिस्ट्रेट के सामने आरोपी अपने गुनाह कबूल करता है। आरोपी की सजा उस केस की न्यूनतम सजा से आधी या उससे भी कम कर दी जाती है।
किस केस में हो सकती है प्ली बार्गेनिंग
- कोई भी आरोपी ( जिसकी उम्र 18 साल या उससे ज्यादा है ) प्ली बार्गेनिंग के लिए अर्जी दाखिल कर सकता है।
- इसके लिए जरूरी है कि आरोपी के खिलाफ दर्ज केस में अधिकतम सजा का प्रावधान 7 साल कैद से कम हो।
- साथ ही , अपराध महिला या 14 साल से कम उम्र के बच्चों के खिलाफ न हो।
- आरोपी द्वारा किया गया अपराध देश की इकनॉमी और सामाजिक ढांचे को प्रभावित न करता हो।
- आरोपी के खिलाफ जिस अदालत में मुकदमा पेंडिंग है , वह उसी अदालत में प्ली बार्गेनिंग के लिए आवेदन कर सकता है।
- वैसा आरोपी प्ली बार्गेनिंग के लिए अर्जी दाखिल नहीं कर सकता , जिसे किसी दूसरे मामले में अदालत पहले दोषी करार दे चुकी हो।
- आवेदन के साथ - साथ केस से संबंधित जानकारी होनी जरूरी है। इस अर्जी को देखने के बाद संबंधित मैजिस्ट्रेट आरोपी की अर्जी और केस फाइल चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट को रेफर कर देते हैं और फिर सीएमएम ( चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट ) मामले के निपटारे के लिए उसे प्ली बार्गेनिंग जज के सामने भेजता है।
दोनों पक्ष आमने - सामने
प्ली बार्गेनिंग जज पीड़ित पक्ष को नोटिस जारी करते हैं और फिर तय तारीख पर सभी पक्षों को सामने बैठाया जाता है। इस दौरान आरोपी , जांच अधिकारी , सरकारी वकील और पीड़ित पक्ष मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट के सामने बैठते हैं और मैजिस्ट्रेट अपने सामने दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने की कोशिश करते हैं। इस दौरान आरोपी अपनी मर्जी से अपना गुनाह कबूल करता है। समझौते के बाद अदालत इस बाबत रिपोर्ट तैयार करती है और सभी पक्षों के हस्ताक्षर कराए जाते हैं और फिर मामले का निपटारा कर दिया जाता है। अगर किसी मामले में समझौता न हो पाए तो मामले को फिर से संबंधित अदालत में भेज दिया जाता है।
जल्द होता है निपटारा
आरोपी के खिलाफ जिन धाराओं में केस दर्ज होता है , उसमें न्यूनतम सजा से आधी या उससे भी कम सजा देकर या आरोपी पर सिर्फ जुर्माना लगा कर छोड़ा जा सकता है। जिन मामलों में न्यूनतम सजा का उल्लेख नहीं है , उनमें आरोपी को अधिकतम सजा की एक - चौथाई या उससे भी कम सजा दी जा सकती है। कई बार आरोपी को सजा न देकर उसे गलती का अहसास कराया जाता है और नेक चाल - चलन के आधार पर भी छोड़ा जाता है। यह सारी प्रक्रिया एक से दो तारीखों में निपटाई जाती है। प्ली बार्गेनिंग के तहत हुआ समझौता एक बार अदालत द्वारा स्वीकार किए जाने के बाद मुकदमे का अंतिम रूप से निपटारा हो जाता है और इस स्थिति में अपील का प्रावधान नहीं है।
प्ली बार्गेनिंग की मिसाल
प्रसाद नगर थाने में 8 साल पहले घर में जबरन घुसकर मारपीट का एक मामला दर्ज किया गया था। इस मामले में 3 लोगों को आरोपी बनाया गया। 2001 में दर्ज इस मामले की सुनवाई निचली अदालत में चलती रही। इसी बीच आरोपियों ने अदालत में प्ली बार्गेनिंग के लिए अर्जी दाखिल की। अदालत ने इस मामले में पीड़ित पक्ष को नोटिस देकर बुलाया। आरोपियों ने मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट (प्ली बार्गेनिंग जज) के सामने गुनाह कबूल कर लिया और पीड़ित पक्ष से उनका समझौता हो गया। फिर प्ली बार्गेनिंग के प्रावधानों के तहत अदालत ने इस मामले में आरोपियों द्वारा जेल में बिताए गए वक्त को सजा माना और उन पर 100-100 रुपये का जुर्माना लगाया।
साभार -
नवभारत टाइम्स | Nov 25, 2012, 12.47PM IST
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/17358804.cms
पुलिस से शिकायत
पुलिस से किसी भी अपराध की शिकायत की जा सकती है। अपराध दो तरह के होते हैं संज्ञेय ( कॉग्निजेबल ) और असंज्ञेय ( नॉन कॉग्निजेबल ) अपराध।
एनसी कब
असंज्ञेय अपराधों की कैटिगरी में मामूली अपराध आते हैं जैसे कि मारपीट , छीनाछपटी आदि। ऐसे मामले में सीधे तौर पर पुलिस के सामने शिकायत नहीं की जाती। ऐसे मामले में पुलिस एनसीआर ( नॉन कॉग्निजेबल रिपोर्ट ) दर्ज करती है और मामला मैजिस्ट्रेट को रेफर कर दिया जाता है। असंज्ञेय अपराध में पुलिस सीधे एफआईआर दर्ज नहीं करती जबकि संज्ञेय अपराध में पुलिस को सीधे एफआईआर दर्ज करना होता है।
एफआईआर कब
संज्ञेय अपराधों में गंभीर किस्म के अपराध आते हैं जैसे कि हत्या , रेप , डकैती , लूट आदि। सीआरपीसी की धारा -154 के तहत संज्ञेय अपराध में पुलिस एफआईआर दर्ज करना जरूरी है। लेकिन पुलिस अगर केस दर्ज करने में आनाकानी करे तो शिकायती सीधे जिले के आला अधिकारी यानी डीसीपी और एसपी से शिकायत कर सकता है और कई बार आला अधिकारी के दखल से केस दर्ज कर लिया जाता है।
अदालत की दखल से एफआईआर
अगर इसके बाद भी केस दर्ज न हो तो पीड़ित पक्ष इलाके के अडिशनल चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट या चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट के सामने सीआरपीसी की धारा -156 (3) के तहत शिकायत कर सकता है। हर जिला अदालत में एक अडिशनल चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट बैठता है। दिल्ली से बाहर के मामले में चीफ जूडिशियल मैजिस्ट्रेट ( सीजेएम ) के सामने शिकायत की जा सकती है। इसके बाद अदालत मामले को संबंधित मैजिस्ट्रेट को रेफर करती है। इसके बाद मैजिस्ट्रेट के सामने शिकायती अपना पक्ष रखता है और उससे संतुष्ट होने के बाद मैजिस्ट्रेट एफआईआर दर्ज करने का आदेश देता है। अगर मैजिस्ट्रेट ने अर्जी खारिज कर दी तो उस अदालती फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अर्जी दाखिल की जा सकती है।
फैमिली कोर्ट
2 साल पहले राजधानी दिल्ली की जिला अदालतों में फैमिली कोर्ट की शुरुआत की गई है। फैमिली कोर्ट में वैवाहिक विवादों से संबंधित मामला चलता है। इस कोर्ट का माहौल सौहार्दपूर्ण होता है। यहां कोशिश यह होती है कि दोनों पक्ष आपसी सहमति से मामले में समझौता कर लें और केस का निपटारा हो जाए। इसके लिए कोर्ट में काउंसलर और सायकायट्रिस्ट होते हैं जो दोनों पक्षों को सुनते हैं और फिर आपसी बातचीत के जरिए मामले को किसी नतीजे पर लाने की कोशिश करते हैं। कोर्ट रूम के बगल में बच्चों के खेलने के लिए कमरे बनाए गए हैं जहां बच्चे खिलौने से खेलते हैं। साथ ही टीवी कार्टून आदि देखते हैं।
वकील के पैसे न हों तो
स्टेटस लीगल सर्विस अथॉरिटी (एलएसए) जरूरतमंद लोगों को मुफ्त कानूनी मदद दे रही है। इसके तहत मुफ्त कानूनी सलाह से लेकर मुफ्त वकील और अदालत में होने वाले बाकी खर्च भी शामिल हैं। लीगल एड के लिए लीगल सर्विस अथॉरिटी में संपर्क करें।
मीडिएशन सेंटर
हाई कोर्ट के सरकारी वकील नवीन शर्मा ने बताया कि जब मामला अदालत में पेंडिंग होता है तो दोनों पक्ष में से कोई भी पक्ष चाहे तो अदालत से मामले को समझौते के लिए मेडिएशन सेंटर भेजने का आग्रह कर सकता है। अदालत दोनों पक्षों की रजामंदी से मामले को मीडिएशन सेंटर भेजता है ताकि मामले का बातचीत के जरिये निपटारा किया जा सके। अगर मामला गैर समझौतवादी हो तो हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल कर केस मीडिएशन में रेफर करने की गुहार लगाई जा सकती है। कई बार वैवाहिक मामले या अन्य मामलों में अगर अदालत को लगता है कि केस में दोनों पक्षों में बातचीत से निपटारे की गुंजाइश है तो मामले को खुद ही मीडिएशन में भेजते हैं। यहां जब समझौता हो जाता है तो सेंटर की रिपोर्ट संबंधित अदालत में पेश की जाती है और फिर अदालत में उस मामले में अंतिम फैसला होता है।
ईवनिंग कोर्ट
ईवनिंग कोर्ट यानी ऐसी अदालत , जो शाम 5 बजे से 7 बजे तक लगती है। मैजिस्ट्रेट कोर्ट में मुकदमों की संख्या को कम करने के लिए नवंबर 2008 में ईवनिंग कोर्ट की शुरुआत हुई। ईवनिंग कोर्ट शुरू होने का लोगों को काफी फायदा हुआ है। सामान्य कोर्ट में सुनवाई के दौरान कोर्ट में मौजूद रहने के लिए छुट्टी करनी पड़ी है। छुट्टी न मिलने से कई बार वादी या प्रतिवादी कोर्ट में पेश नहीं हो पाते। इससे कोर्ट का वक्त बर्बाद होता है और मामला लंबा खिंचता चला जाता था। ईवनिंग कोर्ट में ऐसी कोई समस्या नहीं है। ड्यूटी खत्म होने के बाद भी लोग संबंधित कोर्ट में पेश हो सकते हैं। साथ ही , जिन मामलों की सुनवाई होती है , ईवनिंग कोर्ट में उनकी लिस्ट पहले ही तैयार कर ली जाती है। इससे जिन लोगों के केसों की अगले दिन सुनवाई होनी होती है , उन्हें यह अंदाजा हो जाता है कि उस दिन उन्हें किस वक्त कोर्ट में मौजूद रहना है। इससे उनका समय भी बर्बाद नहीं होता। ईवनिंग कोर्ट में केस की सुनवाई के लिए यह जरूरी नहीं कि दोनों पक्ष अपने - अपने वकीलों के साथ ही कोर्ट में पेश हों। अगर दोनों पक्ष मामले को निपटाना चाहते हैं तो वे व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश हो सकते हैं। शुरुआत में ईवनिंग कोर्ट में चेक बाउंस के मामलों की सुनवाई होती थी , लेकिन अब इनका दायरा काफी बढ़ गया है। इस समय ईवनिंग कोर्ट में वेट एवं मेजरमेंट , चाइल्ड लेबर , न्यूनतम वेतन , लोकल पुलिस द्वारा काटे गए ट्रैफिक चालान , दिल्ली पुलिस ऐक्ट के तहत बनाए गए कलंदरे , नोटिस ब्रान्च और शॉप ऐक्ट आदि के मुकदमों की सुनवाई भी होती है।
कंस्यूमर कोर्ट
कानूनी जानकार अजय दिग्पाल बताते हैं कि कंस्यूमर के अधिकार से जुड़ा मामला कंस्यूमर कोर्ट में जाता है। ऐसे मामले में पीड़ित खुद भी अपने इलाके के कंस्यूमर कोर्ट ( हर जिले में कंस्यूमर कोर्ट है ) में जाकर लिखित शिकायत दे सकता है और प्रतिवादियों के नाम समन जारी करने की गुहार लगा सकता है या फिर वकील के जरिए शिकायत दे सकता है। चूंकि आम आदमी को कंस्यूमर कोर्ट में बड़ी कंपनी या बड़े संस्थान के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़नी होती है , ऐसे में उन्हें वकील की सलाह लेनी चाहिए क्योंकि दूसरी तरफ से वकीलों की टोली होती है।
फास्ट ट्रैक कोर्ट
राजधानी दिल्ली में हाई कोर्ट के आदेश से फास्ट ट्रैक कोर्ट की शुरुआत की गई है। 7 साल से ज्यादा पुराने मामलों के निपटारे के लिए हाई कोर्ट ने निचली अदालतों में फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन किया है और यहां पुराने मामलों की जल्दी सुनवाई के बाद निपटारा किया जाता है।
ई - कोर्ट
ई - कोर्ट की शुरुआत हाई कोर्ट से हुई है। ई - कोर्ट यानी पेपरलेस कोर्ट। इसके पीछे कॉन्सेप्ट यह है कि अदालत में तमाम दस्तावेज डिजिटल होंगे और वहां कोई पेपर नहीं दिखेगा , बल्कि तमाम दस्तावेज लैपटॉप और कंप्यूटर में होंगे। ई - कोर्ट में फाइल होने वाले दस्तावेज डिजिटल फॉर्म में होते हैं और वकील लैपटॉप में अपने दस्तावेज स्टोर कर उसके आधार पर जिरह करते हैं। राजधानी दिल्ली में अभी इसकी शुरुआत भर की गई है। दस्तावेजों को डिजिटल फॉर्म में लाने का काम तेजी से चल रहा है।
लोक अदालत
दिल्ली लीगल सर्विस अथॉरिटी लोक अदालतों का आयोजन करती है। दिल्ली की तमाम जिला अदालत कॉम्प्लेक्स में लोक अदालतें लगाई जाती हैं। समय - समय पर लोक अदालतें लगाई जाती है और इसकी तारीख लीगल सर्विस अथॉरिटी तय करता है। लोक अदालत में तमाम तरह के सिविल और समझौतावादी क्रिमिनल मामलों का निपटारा किया जाता है। क्रिमिनल केस दो तरह के होते हैं : समझौतावादी और गैर - समझौतावादी। गैर - समझौतावादी मामलों को लोक अदालत में रेफर नहीं किया जाता लेकिन समझौतावादी मामलों को लोक अदालत में भेजा जा सकता है , खासकर बिजली चोरी , मारपीट , मोटर वीइकल दुर्घटना दावा ट्रिब्यूनल , चेक बाउंस , ट्रैफिक चालान , लेबर लॉ आदि से संबंधित केस आदि को लोक अदालत में रेफर किया जा सकता है लेकिन इसके लिए जरूरी है कि दोनों पक्ष मामले को निपटाने के लिए तैयार हों। सिविल नेचर के तमाम केस रेफर हो सकते हैं , जबकि क्रिमिनल के समझौतावादी। गैर समझौतावादी केस जैसे बलात्कार , हत्या , लूट , देशद्रोह , डकैती , हत्या की कोशिश आदि का केस रेफर नहीं होता।
दोनों पक्षों की रजामंदी जरूरी
जब एक पक्ष केस को लोक अदालत में रेफर करने के लिए अदालत से आग्रह करता है तो अदालत दूसरे पक्ष से उसकी इच्छा जानने की कोशिश करती है। जब दोनों पक्षों में समझौते की गुंजाइश दिखती है तो मामले को लोक अदालत में रेफर कर दिया जाता है। लोक अदालत में पेश होकर दोनों पक्ष अपनी बात कोर्ट के सामने रखते हैं। अदालत दोनों पक्षों को सुनती है और मामले का निपटारा करती है। चूंकि दोनों पक्ष मामले को खत्म करने का मन बनाकर जाते हैं , इसलिए अक्सर एक ही सुनवाई में मामले का निपटारा हो जाता है। लोक अदालत में निपटे केस को चुनौती नहीं दी जा सकती। लोक अदालत में वकीलों की जरूरत नहीं होती।
जनहित याचिका
अगर किसी के मूल अधिकार का उल्लंघन हो रहा हो तो वह सीधे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है लेकिन अगर आम लोगों के हितों से जुड़ी बात हो तो मामला याचिका जनहित याचिका में तब्दील हो जाता है। 80 के दशक के शुरू में जनहित याचिका यानी पीआईएल ( प्राइवेट / पब्लिक इंट्रेस्ट लिटिगेशन ) का प्रावधान हुआ। 1982 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस पी . एन . भगवती की अगुवाई में 7 जजों की बेंच ने बहुचर्चित जज ट्रांसफर केस में ऐतिहासिक फैसला दिया। अपने जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आम लोगों के अधिकारों को नकारा नहीं जा सकता। ऑस्ट्रेलियन लॉ कमिशन की एक सिफारिश का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर आम आदमी के अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो तो कोई भी शख्स जनहित याचिका दायर कर सकता है। इससे पहले इस बात की व्यवस्था थी कि जो पीड़ित पक्ष है , वही इस बारे में अर्जी दाखिल कर सकता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में यह व्यवस्था दी गई कि अगर मामला आम लोगों के हित से जुड़ा हो तो कोई भी उसके लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।
लेटर से भी हो सकती है याचिका दायर
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अगर कोई शख्स हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को लेटर लिखकर भी समस्या के बारे में सूचित करता है तो अदालत उस लेटर को जनहित याचिका में बदल सकती है। लेटर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को संबोधित कर लिखा जा सकता है ये लेटर कोई भी नागरिक लिख सकता है। अगर मामला जनहित से जुड़ा हो तो कोर्ट इसमें संज्ञान ले सकता है।
जनहित याचिकाएं दो तरह की होती हैं :
1. प्राइवेट इंट्रेस्ट लिटिगेशन :
अगर किसी का अधिकार प्रभावित हुआ है , तो वह खुद प्राइवेट इंट्रेस्ट लिटिगेशन के तहत याचिका दायर कर सकता है। इसके लिए उसे संविधान के अनुच्छेद -32 के तहत सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद -226 के तहत हाई कोर्ट में याचिका दायर करने का अधिकार है। याचिकाकर्ता को अदालत को बताना होता है कि उसके मूल अधिकार का उल्लंघन कैसे हुआ है ?
2. पब्लिक इंट्रेस्ट लिटिगेशन :
जनहित याचिका दायर करने के लिए याचिकाकर्ता को बताना होगा कि आम लोगों के अधिकार का उल्लंघन कैसे हुआ है ? अपने खुद के इंट्रेस्ट के लिए जनहित याचिका का इस्तेमाल नहीं हो सकता।
जनहित याचिका का उदाहरण
ऐडवोकेट अशोक अग्रवाल ने बताया कि 29 अगस्त 2011 को 7वीं क्लास में पढ़ने वाला लड़का सीमापुरी स्थित स्कूल गया था। स्टूडेंट नीचे बैठकर पढ़ाई कर रहा था , तभी बाहर से कोई पत्थर उड़कर आया और स्टूडेंट की आंख में लग गया। रात 12 बजे एम्स में इलाज के दौरान लड़के के पैरंट्स को बताया गया कि बच्चे की लेफ्ट आंख की रोशनी चली गई और इसका ऑपरेशन कर नकली आंख लगानी होगी। इसके बाद एक एनजीओ ने हाई कोर्ट को लेटर लिखकर इस मामले को उठाया। हाई कोर्ट ने इसे याचिका में तब्दील करते हुए सरकार से जवाब देने को कहा। याचिका पर सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार से कहा कि वह हर स्कूल में स्टूडेंट को मेडिकल सुविधा देने के लिए एक-एक डॉक्टर का इंतजाम करे। साथ ही एक पैरा मेडिकल स्टाफ की भी ड्यूटी लगाई जाए।
प्ली बार्गेनिंग
हाई कोर्ट के निर्देश पर शुरू की गई ' प्ली बार्गेनिग ' एक स्वैच्छिक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा आपराधिक मुकदमों का निपटारा किया जाता है। प्ली बार्गेनिंग के तहत वैसे मामलों की सुनवाई होती है , जिनमें अधिकतम सजा 7 साल कैद से कम हो। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि प्ली बार्गेनिंग में एक से दो तारीख में ही दोनों पक्षों के बीच हुए समझौते के बाद केस का निपटारा कर दिया जाता है। अगर दो महीने में समझौता नहीं होता तो केस वापस संबंधित अदालत में भेज दिया जाता है।
दोनों पक्षों की सहमति जरूरी
प्ली बार्गेनिंग के तहत दोनों पक्षों में स्वैच्छिक समझौता होना जरूरी है। इसके तहत आरोपी और पीड़ित पक्ष के बीच मामले को निपटाने के लिए सहमत होना जरूरी है। इस प्रक्रिया के तहत आरोपी अपने अपराध को मर्जी से स्वीकार करता है। दोनों पक्षों के बीच होने वाला समझौता अदालत की देखरेख में होता है। समझौते के बाद मैजिस्ट्रेट के सामने आरोपी अपने गुनाह कबूल करता है। आरोपी की सजा उस केस की न्यूनतम सजा से आधी या उससे भी कम कर दी जाती है।
किस केस में हो सकती है प्ली बार्गेनिंग
- कोई भी आरोपी ( जिसकी उम्र 18 साल या उससे ज्यादा है ) प्ली बार्गेनिंग के लिए अर्जी दाखिल कर सकता है।
- इसके लिए जरूरी है कि आरोपी के खिलाफ दर्ज केस में अधिकतम सजा का प्रावधान 7 साल कैद से कम हो।
- साथ ही , अपराध महिला या 14 साल से कम उम्र के बच्चों के खिलाफ न हो।
- आरोपी द्वारा किया गया अपराध देश की इकनॉमी और सामाजिक ढांचे को प्रभावित न करता हो।
- आरोपी के खिलाफ जिस अदालत में मुकदमा पेंडिंग है , वह उसी अदालत में प्ली बार्गेनिंग के लिए आवेदन कर सकता है।
- वैसा आरोपी प्ली बार्गेनिंग के लिए अर्जी दाखिल नहीं कर सकता , जिसे किसी दूसरे मामले में अदालत पहले दोषी करार दे चुकी हो।
- आवेदन के साथ - साथ केस से संबंधित जानकारी होनी जरूरी है। इस अर्जी को देखने के बाद संबंधित मैजिस्ट्रेट आरोपी की अर्जी और केस फाइल चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट को रेफर कर देते हैं और फिर सीएमएम ( चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट ) मामले के निपटारे के लिए उसे प्ली बार्गेनिंग जज के सामने भेजता है।
दोनों पक्ष आमने - सामने
प्ली बार्गेनिंग जज पीड़ित पक्ष को नोटिस जारी करते हैं और फिर तय तारीख पर सभी पक्षों को सामने बैठाया जाता है। इस दौरान आरोपी , जांच अधिकारी , सरकारी वकील और पीड़ित पक्ष मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट के सामने बैठते हैं और मैजिस्ट्रेट अपने सामने दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने की कोशिश करते हैं। इस दौरान आरोपी अपनी मर्जी से अपना गुनाह कबूल करता है। समझौते के बाद अदालत इस बाबत रिपोर्ट तैयार करती है और सभी पक्षों के हस्ताक्षर कराए जाते हैं और फिर मामले का निपटारा कर दिया जाता है। अगर किसी मामले में समझौता न हो पाए तो मामले को फिर से संबंधित अदालत में भेज दिया जाता है।
जल्द होता है निपटारा
आरोपी के खिलाफ जिन धाराओं में केस दर्ज होता है , उसमें न्यूनतम सजा से आधी या उससे भी कम सजा देकर या आरोपी पर सिर्फ जुर्माना लगा कर छोड़ा जा सकता है। जिन मामलों में न्यूनतम सजा का उल्लेख नहीं है , उनमें आरोपी को अधिकतम सजा की एक - चौथाई या उससे भी कम सजा दी जा सकती है। कई बार आरोपी को सजा न देकर उसे गलती का अहसास कराया जाता है और नेक चाल - चलन के आधार पर भी छोड़ा जाता है। यह सारी प्रक्रिया एक से दो तारीखों में निपटाई जाती है। प्ली बार्गेनिंग के तहत हुआ समझौता एक बार अदालत द्वारा स्वीकार किए जाने के बाद मुकदमे का अंतिम रूप से निपटारा हो जाता है और इस स्थिति में अपील का प्रावधान नहीं है।
प्ली बार्गेनिंग की मिसाल
प्रसाद नगर थाने में 8 साल पहले घर में जबरन घुसकर मारपीट का एक मामला दर्ज किया गया था। इस मामले में 3 लोगों को आरोपी बनाया गया। 2001 में दर्ज इस मामले की सुनवाई निचली अदालत में चलती रही। इसी बीच आरोपियों ने अदालत में प्ली बार्गेनिंग के लिए अर्जी दाखिल की। अदालत ने इस मामले में पीड़ित पक्ष को नोटिस देकर बुलाया। आरोपियों ने मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट (प्ली बार्गेनिंग जज) के सामने गुनाह कबूल कर लिया और पीड़ित पक्ष से उनका समझौता हो गया। फिर प्ली बार्गेनिंग के प्रावधानों के तहत अदालत ने इस मामले में आरोपियों द्वारा जेल में बिताए गए वक्त को सजा माना और उन पर 100-100 रुपये का जुर्माना लगाया।
साभार -
नवभारत टाइम्स | Nov 25, 2012, 12.47PM IST
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/17358804.cms
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