सेवा का मेवा – भाग 1 - दलालों के कब्जे में स्टांप एवं पंजीकरण दफ्तर

मुंबई में संपत्ति खरीदना हो सकता है कि किसी के लिए बेहद मुश्किल हो। संपत्ति के भाव आम इंसान की पहुंच से बेहद दूर हैं। लेकिन यदि कोई खरीद ले तो उसकी खुशी तब काफुर हो जाती है, जब उसे संपत्ति रजिस्ट्रेशन के लिए संबंधित दफ्तर में जाना पड़ता है। दुनिया भर के दस्तावेज, औपराचिकताएं, दलालों के भारी-भरकम अवैध सेवाशुल्क चुकाने के बाद जब इन दफ्तरों में संपत्ति खरीदने वाले या फ्लैट किराए पर लेने वाले पंजीकरण के लिए पहुंचते हैं, तो लंबी और उबाऊ प्रक्रिया से गुजरने के पहले उन्हें यह अहसास होता है कि वे किसी अपराध की सजा काटने वहां पहुंचे हैं। इस खास लेखमाला में मुंबई मित्र समूह के वरिष्ठ खोजी पत्रकार विवेक अग्रवाल कर रहे हैं कुछ चौंकाने वाले खुलासे।

बोरीवली पश्चिम में तहसीलदार कार्यालय में स्टांप ड्यूटी चुकाने और पंजीकरण करवाने के लिए सैंकड़ो लोग विगत शनिवार को सुबह आठ बजे से ही पहुचने शुरू हो गए। वहां पर तब तक कोई अधिकारी व कर्मचारी नहीं आए थे। दलाल अपने साथ इन नागरिकों को लेकर पहले से आ डटे ताकी उनका काम भी जल्दी हो जाए। कुछ कर्मचारी 10 बजे के बाद पहुंचे। काम शुरू करने की कवायद होती दिखने लगी। लेकिन ये क्या! वहां कोई काम हो ही नहीं रहा है। लोग परेशान होने लगे। तेज गर्मी और उमस में बुजुर्ग और छोटे बच्चे परेशान होने लगे। जवाब देने वाला कोई नहीं।

इस दफ्तर में जो प्रतीक्षालय बना है, वहां न तो पानी की व्यवस्था है, न पंखे ठीक से चल रहे हैं, न ही पर्याप्त मात्रा में बैठने की सुविधा है, न ही साफ शौचालय हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि काम क्यों शुरू नहीं हो रहा है, यह बताने वाला कोई नहीं है। 12 बजे तक तो लोगों में गुस्सा फूटने लगा। कुछ लोगों ने बताया कि जो महिला अधिकारी यहां आई हैं, उनके नाम से कंप्यूटर पर लॉगइन नहीं हो पा रहा है। अंततः इस मुंबई मित्र संवाददाता ने उनसे पूछताछ की। पता चला कि यहां के अधिकृत अधिकारी और उनके तमाम वरिष्ठ अधिकारियों की एक बैठक बांद्रा स्थित एमआईजी क्लब में चल रही है। वे चूंकि नहीं आ सकते हैं इसके लिए वैकल्पिक व्यवस्था के तहत ये महिला अधिकारी आई हैं लेकिन पुणे स्थित मुख्यालय में उनका लॉगइन रजिस्टर नहीं हुआ है, इसके चलते यह समस्या पेश आ रही है। मुख्यालय में बातचीत करने के बाद लगभग 1 बजे लॉगइन हुआ और कंप्यूटर ने काम करना शुरू किया।

अब तक लगभग 60 फीसदी लोग उकता और परेशान होकर वापस जा चुके थे। जो बचे हुए लोग थे उनका काम हुआ।

सवाल दर सवाल
सवाल यह उठता है कि आखिरकार क्यों यह कमाऊ विभाग भी सरकार की उदासीनता का शिकार है? यहां क्यों उचित मात्रा में कंप्यूटर नहीं हैं? कंप्यूटरों की कमी के चलते यहां पर काम का बोझ अधिक होता है। यह शिकायत यहां का हर अधिकारी और कर्मचारी करता है। समस्या यह है कि ये कर्मचारी अपनी क्षमता से अधिक काम करने का दिखावा न भी करें, तो भी यह तो साफ है कि कम सुविधाओं के चलते परेशानी तो बड़ी होनी ही है। और इसका खामियाजा सिर्फ विभाग और कर्मचारी ही नहीं भुगत रहे हैं, आम जनता सबसे अधिक प्रताड़ित हो रही है।

मुंबई के कई ऐसे कार्यालय हैं, जहां केवल एक ही कंप्यूटर स्कैनिंग के लिए लगा है। आखिर क्यों वहां अनेक कंप्यूटर नहीं लगाए जाते हैं? यदि बेहतर और तेज सुविधा मिलने लगेगी तो लोग भी आसानी से दस्तावेज पंजीकृत करवाएंगे और उसका लाभ यह मिलेगा कि सरकार के राजस्व में भी तगड़ी वृद्धि होगी। यह कई मामलों में देखा गया है कि बहुतेरे मकान मालिक और किराएदार इन पचड़ों में पड़ने से बचने के लिए ही स्टांप शुल्क भरने और पंजीकरण करवाने नहीं आते हैं।

पीआरओ क्यों नहीं
एक और मौजूं सवाल है कि क्यों हर दफ्तर में बाहर ही एक पीआरओ नहीं बैठता है, जो हर नागरिक को बताए कि उसके दस्तावेज कैसे पंजीकृत होंगे? उनके लिए क्या प्रक्रिया होगी? उसके लिए कितना शुल्क लगेगा? ऐसे एक कर्मचारी की उपस्थिति भर से ही लोगों को भरोसा इस विभाग पर बढ़ेगा। उससे राजस्व भी बढ़ेगा तो फायदा भी सरकारी तिजोरी को ही होगा। आखिरकार क्यों देश और राज्य के नीति नियंता यह समझते हैं कि वे जो सेवाएं दे रहे हैं, उसके सामने जो शुल्क वसूल रहे हैं, उसमें थोड़ा सा ही इजाफा कर देने भर से नागरिकों को यह रकम चुकाना चुभेगा नहीं।

पारदर्शिता का अभाव
पारदर्शिता का अभाव इस कदर इन दफ्तरों में छाया हुआ है कि वाहं आऩे से पहले ही लोगों के मन में यह सवाल खड़ा हो जाता है कि क्यों वहां हर नागरिक के लिए नंबर की जानकारी देने के लिए बोर्ड नहीं लगे हैं? जिसका नंबर पहले है, उसे पहले ही पंजीकरण का मौका मिलना चाहिए। आज की व्यवस्था में तो यह पता ही नहीं चलता है कि किसके आगे कौन चला गया, किसके पीछे किसे धकेल दिया है। यह सब वहां के कर्मचारियों और दलालों की मिलीभगत से चल रहा है। लोग हैं कि कुछ बोलने में अक्षम हैं।

पारदर्शिता के घोर अभाव में यह दफ्तर भ्रष्टाचार और लापरवाही का बड़ा अड्डा बन चला है। अधिकारी और कर्मचारी पंजीकरण करवाने आए नागरिकों से इस तरह व्यवहार करते हैं, जैसे कि वे इस काम से नागरिकों पर अहसान कर रहे हैं।

वैकल्पिक व्यवस्था का अभाव
एक बड़ा सवाल यह भी उस दिन बोरीवली की घटना से उपजा कि यदि कोई वरिष्ठ अधिकारी अवकाश पर है तो उसके बदले सक्षम अधिकारी और उसके साथ ही वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं होती है? यदि सरकार ऐसी ही चलताऊ व्यवस्था दे रही है तो फिर नागरिकों ने आखिर क्या सोच कर परिवर्तन के मतदान किया था?

वरिष्ठ नागरिक उपेक्षित क्यों
आखिरकार क्यों वरिष्ठ नागरिकों को सुविधा देने के लिए अलग काऊंटर के साथ ही वरीयता देने का प्रवाधान क्यों नहीं है? बोरीवली में उस दिन देखा कि न जाने कितने ही बुजुर्ग मौजूद थे। वे तीखी गर्मी के कारण परेशान थे। बिना पानी और उमस भरी गर्मी में कई को हांफते हुए भी देखा। यह बेहद कष्टकारी अनुभव था कि कंप्यूटरों को वातानुकूलित व्यवस्था देने के नाम पर तमाम अधिकारी और कर्मचारी भी उस ठंडे कमरे में मजे से बैठे होते हैं लेकिन बुजुर्ग बाहर गर्मी में सड़ रहे हैं। क्या हमारे नीति नियंता एक या दो एसी प्रतीक्षालय में नहीं लगा सकते हैं?

दलालों की दादागिरी
सबसे बड़ा सवाल है कि क्यों यहां दलालों की इस कदर दादागिरी चलती है? समस्या यह है कि ये एक ऐसी व्यवस्था बन चुकि है, जहां सिर्फ दलालों का ही बोलबाला है। यदि दलालों की यह व्यवस्था खत्म हो जाती है तो उससे न केवल नागरिकों के हजारों रुपए बचेंगे बल्कि सरकार के राजस्व में भी भारी वृद्धि होगी। दलाल ने ऐसी व्यवस्था बना ली है कि वे एक छोटे से फ्लैट किराए पर लेने के पंजीकरण पर भी तीन से पांच हजार रुपए बतौर सेवाशुल्क लेते हैं। ठीक उसके उलट एक साल के लिए फ्लैट लेने पर एक हजार से पंद्रह सौ की रकम ही सरकारी खजाने में जमा होती है, जिसका डिमांड ड्राफ्ट अलग से लिया जाता है। मुर्गी से मसाला मंहगा होने की इस कसरत का लाभ आखिरकार किसे मिल रहा है, यह तो हमारे नीति नियंता भी भली प्रकार जानते हैं।

कई दलाल तो सिर्फ इसी काम से लाखों – करोड़ों का कारोबार कर रहे हैं। उनकी इस आय का कोई लेखा-जोखा नहीं है। वे किस नागरिक से कितनी रकम लेते हैं, उसका कोई हिसाब-किताब होता ही नहीं है। दलाल हमेशा अपना सेवाशुल्क नकद में लेना पसंद करते हैं। यदि कोई कंपनी सेवाशुल्क चेक या डीडी के रूप में देने की व्यवस्था रखती है तो ही वे मजबूरन रकम अधिकृत रूप से लेते हैं।

सच तो यह है कि दलालों का भी सरकार पंजीकरण करे। उनके कामकाज पर निगरानी हो। उनके सेवाशुल्क भी ठीक उसी तरह से तय किए जाएं, जिस तरह किसी अन्य सेवा के लिए तय होते हैं। बिना पंजीकरण वाले दलालों के अवैध रूप से कामकाज करने पर उनके लिए भी गिरफ्तारी और सजा का प्रवाधान होना चाहिए।

दलालों द्वारा दस्तावेज सौंपने के पहले ही तय की गई रकम से भी अधिक की मांग करने के मामले भी सामने आते हैं। रकम को लेकर विवाद होने की स्थिति में वे दस्तावेज अपने ही पास रख लेते हैं और एक तरह से नागरिकों के साथ जबरिया वसूली ही करते हैं। इस स्थिति से बचने के लिए नियम यह बनाया जाना चाहिए कि हर नागरिक का सेलफोन नंबर और एक ईमेल आईडी भी लिया जाए। जो दस्तावेज स्कैन किए जाते हैं, वे सीधे नागरिक की ईमेल पर एक प्रति भेजी जाए। इसके साथ ही काम होने की सूचना भी एसएमएस के जरिए नागरिक को सीधे दी जाए। उनके दस्तावेज एकत्रित करने के लिए एक अलग खिड़की की व्यवस्था हो, जहां जाकर वे अपने सेलफोन का एसएमएस या ईमेल दिखा कर दस्तावेज हासिल कर लें। ऐसी हालात में दलालों की ब्लैकमेलिंग से नागरिकों को पूरी तरह छुटकारा मिल जाएगा।

दस्तावेज देने की प्रक्रिया सुधार जरूरी
एक बार पंजीकरण के लिए आने के बाद तुरंत उसी समय दस्तावेज और रसीदें नहीं दी जाती हैं। उसके लिए अगले दो या चार दिन आगे का समय बताया जाता है। उस दिन आने पर भी एक मजेदार बात दफ्तर में देखने के लिए मिलती है। कई दफ्तरों में तो कर्मचारी भी आपको ये पंजीकृत दस्तावेज देते नहीं दिखते हैं। एक मेज पर पंजीकृत दस्तावेज रखे होते हैं। कोई भी वहां जाकर किसी के भी दस्तावेज उठा ले जाए तो कुछ नहीं किया जा सकेगा।

हालात इतने विषम होते जा रहे हैं कि लोगों का विश्वास ही इस व्यवस्था से उठता जा रहा है। लोग परेशान है लेकिन नीति नियंताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की उदासीनता और घोर लापरवाही के चलते जनता त्रस्त हुई जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि लोग इस सबसे आजिज आ जाए और अदालत की शरण ले कि उन्हें धन चुकाने के बदले में सरकार से भी वैसी ही व्यवस्था चाहिए, जैसी देश के कार्पोरेट और बैंक देते हैं।
जारी...

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